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Tuesday, May 26, 2009

भारत में मिलती हैं गांधीगीरी की कई मिसालें

गांधी के दर्शन को लेकर आज फिल्में बन रही हैं। नाटक मंचित हो रहे हैं और खास बात यह है कि इस नाउम्मीद होती दुनिया में उनकी व्यावहारिक शिक्षा से ही आस लगाई जा रही है। हाल में एक चर्चित फिल्म के जरिए गांधीगीरी नामक एक नया जुमला चल पड़ा है। पर चलताऊ अंदाज में चलने वाली दुनिया को इस गांधीगीरी में ही राह दिखती है। मुन्ना भाई की तरह अपने देश में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनकी गांधीगीरी सार्थक सिद्ध हुई है। और उन्होने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया है।
शुरुआत करते हैं उड़ीसा की उर्मिला बेहरा से, जिनकी गांधीगीरी पर्यावरण संरक्षण के लिए समर्पित है। शायद इसीलिए वे आज अपने राज्य में ‘गछ मां’ के नाम से विख्यात हो गई हैं। उन्होंने पिछले पंद्रह सालों में अपने इलाके में एक लाख से भी अधिक वृक्ष लगाकर हरियाली के प्रति श्रद्धा और पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की नजीर पेश की है। उर्मिला कोई पर्यावरणविद् नहीं हैं। वे ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्दों से भी एकदम अनजान हैं। लेकिन एक चीज बहुत अच्छी तरह जानती-समझती हैं कि पेड़ मनुष्य और धरती के लिए बहुत ही जरूरी है। इसलिए पेड़ लगाना उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना रखा है। पेड़ लगाने की चाह उर्मिला के मन में दो बेटियों की मां बनने के बाद जगी। बेटे के अभाव में उन्होंने अपने आंगन में एक पेड़ लगाकर उसे ही बेटे की तरह प्यार व ममता देना शुरू कर दिया। इससे उनके मन को न सिर्फ संतोष मिला बल्कि निरंतर अनगिनत पेड़ लगाने की भी प्रेरणा मिली। घर के आंगन से शुरू हुआ पेड़ लगाने का उनका यह सिलसिला अब आसपास के साठ गांवों में फैल चुका है।
इसी तरह महाराष्ट्र के अमरावती जिले की सिंधुताई सपकाल की गांधीगीरी पर भी गौर किया जा सकता है। अपने राज्य में वे ‘मदर आफ थाउजेंड’ यानी हजारों संतानों की मां के नाम से जानी जाती हैं। सिंधुताई जब दस साल की थीं, उनका विवाह एक अधेड़ के साथ कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने दो बच्चों को जन्म दिया। लेकिन जब वह तीसरे बच्चे की मां बनने वाली थीं तो उन पर लांछन लगाकर उन्हें घर से निकाल दिया गया। अपनी तीसरी संतान को जन्म देने तक उन्होंने जानवरों के रहने की जगह पर ही गुजारा किया। इसके बाद वे रेलवे स्टेशन पर रहने चली गईं, जहां उनकी मुलाकात घर से भागे, भगाए और सताए गए अनेक बच्चों से हुई। सिंधुताई ने अपने बच्चों के साथ उन बच्चों को भी अपनी ममता की छांव दी। सिंधुताई ने महाराष्ट्र के चार जिलों में दर्जनों संस्थाओं का जाल बुन दिया है। वहां बेसहारा बच्चों और महिलाओं को न सिर्फ आश्रय दिया जाता है, बल्कि वे भविष्य में कुछ बेहतर कर सकें, इसके लिए प्रशिक्षण के साथ अन्य व्यवस्थाएं भी की जाती हैं।
सहारनपुर की साठ वर्षीया शिमला सैनी की कहानी भी कम प्रेरक नहीं। जब विवाह कर वे ससुराल आईं तो परंपरा और रीति-रिवाज के नाम पर थोपी जाने वाली कई चीजें ढोंग लगीं। सिंदूर, चूड़ियां और रंगीन कपड़े त्याग कर उतर गईं गांव की कष्ट भोगती महिलाओं के जीवन में खुशियां लाने के काम में। पहले तो सभी ग्रामीण बहनों को संगठित कर शराब का विरोध किया। फिर देखा कि गांव के स्कूल में लड़कियों को शिक्षा से जान-बूझकर अलग रखा जा रहा है। उन्होंने अपने प्रयास से अलग से एक नया स्कूल खोला और वहां लड़कियों की शिक्षा सुनिश्चित की। जब महिलाएं शिक्षित होने लगीं तो उन्हें स्वयं सहायता समूह से जोड़कर आर्थिक दृष्टि से आत्मानिर्भर बनाने का सिलसिला शुरू किया। उन्हें अपने हर काम में महिलाओं का साथ मिला और वे कामयाब भी हुईं। उनका गांव सबदलपुर पड़ोस के गांवों के लिए अनुकरणीय गांव बन गया है।
वेश्याओं का जीवन हमारे समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। कोई इस अंधेरे से निकल कर मिसाल बन जाए तो यह किसी अचरज से कम नहीं। मुजफ्फरपुर में चतुर्भुज स्थान की रानी बेगम पहले वेश्याओं के कोठे पर धकेल दी गई, पर वह स्वयं चेतना से कोठे से बाहर निकलने में कामयाब हुई और अपनी जैसी अनेक लड़कियों का जीवन बदल दिया। उन्होंने स्कूल खोला फिर लड़कियों को प्रशिक्षण देकर उन्हें वैकल्पिक रोजगार से जोड़ा।
सरकारी अनुदान और निजी संस्थाओं की आर्थिक सहायता से स्कूल चलाने की बात आम है लेकिन क्या भीख में मिलने वाले चावल के सहारे भी कोई स्कूल चल सकता है। इसको साकार कर दिखाया है कोलकाता से दो सौ किलोमीटर दूर दक्षिणपाड़ा में प्रशांत नाम के एक व्यक्ति ने। कभी नक्सली आंदोलन में शामिल रहे प्रशांत ने इस ख्वाब के लिए अपने दो मंजिले पक्के मकान को स्कूल में तब्दील कर दिया है। जहां गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती है। तीन साल पहले शुरू हुए इस स्कूल में महज सात छात्र थे। लेकिन अब इनकी संख्या पचास से ऊपर पहुंच गई है। लेकिन छात्रों की तादाद बढ़ने लगी तो घर की फसल और नगदी से स्कूल चलाना मुश्किल हो गया। स्कूल के लिए और धन जुटाने की उधेड़बुन में फंसे प्रशांत को अचानक एक नया विचार सूझा। उन्होंने स्कूल की ओर से कटवा कस्बे और आसपास के चार गांवों में करीब डेढ़ सौ घरों में मिट्टी की एक-एक हांडी रखवा दी और लोगों से अपील की कि वे हांडी में रोजाना एक मुट्ठी चावल डालें। सच्चे मन से की गई इस अपील का असर यह हुआ कि हर महीने इन तमाम हांडियों से दो क्विंटल चावल जमा होने लगा। इसमें से आधा तो छात्रों को भोजन कराने में खर्च हो जाता है और बाकी चावल को बेचकर उससे मिलने वाली रकम से छात्रों को कापी-किताब व कलम खरीद कर दी जाती है। प्रशांत की लगन को देखकर गांव वाले उत्साह से चावल दान में देते ही हैं, पर अब तो कई युवक-युवतियां भी उनके काम हाथ बंटाने लगे हैं।
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के सिमगां गांव में पीयून गुरुजी के संबोधन सुनने पर कोई भी चौंक जाता है। यहां के सरकारी स्कूल में एकमात्र शिक्षक के तबादले के बाद जब लंबे समय तक कोई नया शिक्षक नहीं आया और बच्चे स्कूल से हर रोज लौटने लगे तो स्कूल के चपरासी ही शिक्षक की भूमिका में आ गए। चपरासी कमल यादव ही पिछले कई सालों से स्कूल के बच्चों को पढ़ाने का काम करते हैं।
शारीरिक अक्षमता के बावजूद बिहार के भागलपुर जिले के नाथनगर क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के बीच अनपढ़ता के अंधकार को दूर करने में बीबी मोहम्मदी की गांधीगीरी कमाल की है। शिक्षा के मामले में अत्यंत पिछड़ा माने जाने वाले नाथनगर जैसे क्षेत्र में बचपन से पोलियोग्रस्त मोहम्मदी ने जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई पूरी की, पर इतने भर से उसे सुकून नहीं मिला। वह अपने क्षेत्र की लड़कियों की निरक्षरता को लेकर बहुत बेचैन रहती थीं। ऐसे में एक दिन उन्होंने बगैर किसी से कोई मदद लिए अपने ही छोटे से घर में लड़कियों को बुलाकर पढ़ाना शुरू कर दिया। उनकी मेहनत का लोगों ने तब लोहा मान लिया जब उसने रोजाना तीन शिफ्टों में कोई साढ़े तीन सौ लड़कियों को पढ़ाना शुरू कर दिया। उनकी इस निस्वार्थ और अपनी क्षमता से अधिक कोशिश की ओर पूरे इलाके का ध्यान गया। इसका अंजाम यह हुआ कि अब इस क्षेत्र में खुद अभिभावक ही अपनी बच्चियों को पढ़ाने के लिए आगे आने लगे हैं। मोहम्मदी ने अपनी यह कोशिश मुस्लिम बुनकरों के उस क्षेत्र में शुरू की जहां लड़कियां तो दूर लड़कों को भी शिक्षा देना जरूरी नहीं समझा जाता था।
गांधीगीरी की मिसाल खड़ी करने वालों की कतार वैसे देश की आबादी के हिसाब से बहुत छोटी है, लेकिन दिल्ली, फरीदाबाद, नोएडा और गुड़गांव की मजदूर बस्तियों में मेरी बरुआ, एस ए आजाद, रेणु चोपड़ा, हरिनंदन प्रसाद, अनुराधा बख्शी, अंजना राजगोपाल, श्रीरूपा मित्र चौधरी और रीना बनर्जी आदि ने अपने-अपने प्रयासों से हजारों बेसहारा बच्चों और महिलाओं का जीवन बदल दिया है। इनकी गांधीगीरी की कहीं कोई चर्चा नहीं होती पर इनसे रोशनी पाने वाले लोगों से पूछें तो उनका यही जवाब है कि अगर आज ये न होते तो हम कहीं के नहीं होते।
(लेखक प्रसून लतांत एक संस्था से जुड़े हैं)

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